बहुत सुंदर शब्द जो एक मंदिर के दरवाजे के बाहर लिखा था, अगर ठोकरे खाकर भी ना संभले तो मुसाफिर का अपना नसीब वरना पत्थरों ने तो अपना फर्ज निभा ही दिया!
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